एफटीआईआई के साथियों का संघर्ष ज़िन्दाबाद!
वो डरते हैं हमारे गीतों से---और हमारी चुप्पी
से!
साथियो!
कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र हमेशा
से ही बर्बरों के निशाने पर रहे हैं। कला पर हमले के कई तरीके होते हैं। एक तरीका
यह है कि कलाकृतियों, मूर्तियों, फिल्मों,
किताबों
को नष्ट कर दिया जाय। दूसरा तरीका होता है कलात्मक रचनाओं का सृजन करने वाली
संस्थाओं का सिरमौर गजेन्द्र चौहान जैसे व्यक्तियों को बना दिया जाय। एफटीआईआई ने
हमारे देश को तमाम प्रगतिशील और जनवादी फिल्मकार दिये हैं। उनकी कलात्मक रचनाओं ने
कई पीढ़ियों को मानवीय सारतत्व से परिचित कराने का काम किया है। शायद यही कारण है
कि आज सत्ता पर काबिज़ फासीवादी ताक़तें किसी भी कीमत पर इस संस्थान की अगुवाई एक
थर्ड-ग्रेड अश्लील फिल्मों के अभिनेता को सौंपना चाहती हैं! लेकिन एफटीआईआई के
हमारे युवा साथियों के संघर्ष ने देश भर के युवा कलाकारों को प्रेरणा और उत्साह
प्रदान किया है। मुम्बई विश्वविद्यालय के हम छात्र भी आज कदम-कदम पर फासीवादी
ताक़तों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं और हमें आपकी लड़ाई से बहुत ताक़त मिली है। हम
आपसे पुरज़ोर शब्दों में तहे-दिल से कहना चाहते हैं: चाहे जो भी हो साथियो! डटे
रहना! हम तुम्हारे साथ हैं!
दोस्तो! यह सोचने की बात है कि फासीवादी भगवा
गिरोह नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में सत्ता में आने के साथ ही कला, साहित्य,
संस्कृति,
शिक्षा
आदि के तमाम संस्थानों के भगवाकरण को क्यों अंजाम दे रहा है? पहले
एन.सी.ई.आर.टी. के पाठ्यक्रम को बदलना, फिर भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्,
उसके
बाद तमाम अन्य अनुसंधान संस्थान और अब एफटीआईआई! वे कला और इतिहास से इस कदर डरे
हुए क्यों हैं? कारण यह है कि इतिहास भी उनका शत्रु है क्योंकि
यह इन हाफ-पैण्टियों की पूरी जन्मकुण्डली खोल कर रख देता है, और
सच्ची कला भी उनकी शत्रु है क्योंकि सच्ची कला मानवीय सारतत्व की नुमाइन्दगी करती
है, यानी हर वह उत्कृष्ट चीज़ जो इंसान ने पैदा की है। यही कारण है कि
दुनिया के हर देश में फासीवादी कलाकारों पर हमले करते हैं, कलात्मक
संस्थानों पर कब्ज़ा जमाते हैं, संगीतकारों की हत्याएँ करते हैं,
फिल्मकारों
को कारागार में धकेल देते हैं। जब मुसोलिनी ने फेदेरिको गर्सिया लोर्का को गाते
हुए सुना तो उसने कहा था कि इस आवाज़ को जितनी जल्दी हो सके शान्त कर देना होगा!
जर्मन चिन्तक वॉल्टर बेंजामिन ने एक बार कहा था
कि फासीवाद राजनीति का सौन्दर्यीकरण करता है और क्रान्तिकारी सौन्दर्यशास्त्र का
राजनीतिकरण करके जवाब देता है। फासीवाद के लिए यह अनिवार्य होता है कि वह कला,
फिल्म,
संगीत
आदि क्षेत्रों पर कब्ज़ा करे। क्योंकि ये क्षेत्र राजनीति के सौन्दर्यीकरण, मिथकों
की रचना और फिर इन मिथकों को सामान्य-बोध के रूप में स्थापित करने के प्रमुख उपकरण
बनते हैं। एफटीआईआई पर मौजूदा हमला कोई अलग-थलग अकेली घटना नहीं है। यह एक ट्रेण्ड
का हिस्सा है। यह एक फासीवादी राजनीतिक एजेण्डा का अहम हिस्सा है, ठीक
उसी प्रकार जिस तरह से मज़दूरों और ग़रीब किसानों के हक़ों पर हमला और
अम्बानियों-अदानियों के लिए देश को लूट की खुली चरागाह बना देना भी इस फासीवादी
एजेण्डा का अहम अंग है। हमारी लड़ाई भी अलग-थलग नहीं रह सकती है। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
ने 1937 में लिखा था, “हमें तुरन्त या सीधे तौर पर इस बात का
अहसास नहीं हुआ कि यूनियनों और कैथेड्रलों या संस्कृति की अन्य इमारतों पर हमला
वास्तव में एक ही चीज़ था। लेकिन ठीक यही जगह थी जहाँ संस्कृति पर हमला किया जा रहा
था।----अगर चीज़ें ऐसी ही हैं---अगर हिंसा की वही लहर हमसे हमारा मक्खन और हमारे
सॉनेट्स दोनों ही छीन सकती है; और अगर, अन्ततः, संस्कृति
वाकई एक इतनी भौतिक चीज़ है, तो इसकी हिफ़ाज़त के लिए क्या किया जाना
चाहिए?” और अन्त में
ब्रेष्ट स्वयं ही इसका जवाब देते हैं, “---वह संस्कृति महज़ केवल किसी स्पिरिट का उद्भव नहीं है बल्कि सबसे
पहले यह एक भौतिक चीज़ है। और भौतिक हथियारों के साथ ही इसकी रक्षा हो सकती है।” दोस्तो, ये शब्द आज भी
सच हैं। आप भी समझते हैं कि हमारी लड़ाई केवल एक संस्थान या एक अनुसन्धान परिषद् तक
सीमित नहीं रह सकती है। आज उनके निशाने पर एफटीआईआई है, कल उनके निशाने
पर कला अकादमियाँ होंगी, परसों कला संग्रहालय और उसके बाद हर
विश्वविद्यालय और संगीत संस्थान!
इसलिए हमें संगठित होना ही होगा। कला की दुनिया
पर बर्बरों का हमला शुरू हो चुका है। यह हमला हर उस चीज़ पर हमला है जो सुन्दर है,
जो
संवेदनशील है, जो न्यायप्रिय है, जो मानवीय है,
जो
समानतामूलक है। एक कलाकार के तौर पर हमें भी अपना पक्ष चुन लेना है! हमें भी हर उस
ताक़त के साथ एक होना चाहिए जो इन फासीवादी बर्बरों के निशाने पर है! क्योंकि यह
कोई आम बर्बरता नहीं है। जब हिटलर के काल के कई कलाकार नात्सियों की बर्बरता पर
चकित थे और इस बर्बरता पर चर्चा कर रहे थे तो ब्रेष्ट ने कहा था, “बर्बरता
से बर्बरता नहीं पैदा होती। बर्बरता उन सौदों से पैदा होती है जिनके लिए बर्बरता
की ज़रूरत होती है।” कारपोरेट घरानों की बेशर्मी से सेवा करने और इस देश के
मज़दूरों-मेहनतकशों को तबाहो-बर्बाद करने के लिए यह अनिवार्य है कि फासीवादी संघ
परिवार देश के आम मध्यवर्ग में एक राय का निर्माण करे। उसके लिए कला, साहित्य,
शिक्षा,
अकादमिक
जगत और संस्कृति के हर शिखर पर वह कब्ज़ा जमाये! आप लोगों की रचनात्मकता इस काम में
फासीवादियों के लिए बाधा है और इसीलिए इस समय आप उनके निशाने पर हैं साथियो! हमारी
लड़ाई भी इस पूरे ख़तरनाक एजेण्डा के ख़िलाफ़, समूची फासीवादी
सत्ता, विचारधारा, राजनीति और “संस्कृति” के ख़िलाफ़
होनी चाहिए। उस सूरत में हम ज़रूर जीतेंगे! हम मुम्बई विश्वविद्यालय के छात्र अपने
संगठन ‘यूनीवर्सिटी कम्युनिटी फॉर डेमोक्रेसी एण्ड इक्वॉलिटी’ के
ज़रिये आपको भरोसा दिलाना चाहते हैं कि हम हर कदम पर आपके साथ हैं!
इंक़लाबी सलाम के साथ,
यूनीवर्सिटी कम्युनिटी फॉर डेमोक्रेसी एण्ड
इक्वॉलिटी (UCDE)
सम्पर्क: विराट 9619039793, नारायण
9769903589, पुष्कर 9730539815
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