धर्म के नाम पर जनता को बाँटने की मुहिम को नाकाम करो! जुझारू जन-एकजुटता कायम करो!!

साम्प्रदायिक फासीवाद मुर्दाबाद!     जनता का भाईचारा ज़िन्दाबाद!!       इंक़लाब ज़िन्दाबाद !!!

धर्म के नाम पर जनता को बाँटने की मुहिम को नाकाम करो! जुझारू जन-एकजुटता कायम करो!!

इस देश के बहादुर और न्यायप्रिय साथियो!

मुज़फ्फरनगर के दंगो को हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ है। इनमें 49 बेगुनाह लोगों की मौत हुई, बहुत से घायल हुए और 40,000 से ज्यादा लोग अपने घर-बार से उजड़कर शरणार्थी शिविरों में पहुँच गये। वैसे तो तमाम चुनावी पार्टियों के नेता साम्प्रदायिक बयानबाजियाँ करके दंगों की आँच पर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकते नज़र आये, लेकिन भगवा गिरोह के नेता इस दौड़ में सबको पीछे छोड़ गये। इन साम्प्रदायिक फासीवादियों ने लोगों को सालों पुरानी वीडियो दिखाकर जिसका मुज़फ्फरनगर से तो क्या हमारे देश से भी कोई सम्बन्ध नहीं था, झूठी अफवाहें फैलाकर और पंचायतों में लोगों के “पौरुष” को ललकारकर दंगो की शुरुआत की। तमाम चुनावी मदारी जानते हैं कि 2014 के चुनाव से पहले दंगो में खून की बारिश हो, तो वोट की फसल अच्छी होती है।मुज़फ्फरनगर का दंगा पहली घटना नहीं है बल्कि दंगो की संख्या में हुआ एक और इज़ाफ़ा भर है। पिछले ही साल असम के दंगो में बड़ी संख्या में लोग मरे थे और लाखों विस्थापित हुए थे। इससे भी पहले आज़ादी के बाद से 2002 के गुजरात दंगे, 1993 का मुम्बई का दंगा, 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद हुए दंगे, 1989 का भागलपुर दंगा, 1987 का मेरठ दंगा, 1984 का दिल्ली दंगा, 1969 का अहमदाबाद दंगा इत्यादि बड़े दंगे हो चुके हैं। दंगो की छोटी-मोटी घटनाएँ तो सामने ही नहीं आ पातीं। समय-समय पर होने वाले इन दंगो में अब तक हज़ारों बेगुनाह लोग मारे गये, हज़ारों महिलाओं के साथ बलात्कार हुए, हज़ारों बच्चे यतीम हुए और लाखों-लाख लोग विस्थापित हुए हैं।
बेगुनाहों की चिताओं पर अपनी वोटबैंक की राजनीति करने वाले हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधियों की पड़ताल से पहले हम देश की मेहनतकश जनता और आम नागरिकों से पूछना चाहेंगे कि सम्प्रदायिक भाषणों और भड़काऊ बयानों से अपने खून में उबाल लाने से पहले हम खुद से यह सवाल क्यों नहीं पूछते कि क्या ऐसे दंगों में कभी राजनाथ, तोगड़िया, ओवैसी, आज़म खाँ, राज ठाकरे, आडवाणी या फिर मोदी जैसे लोग मरते हैं? क्या कभी उनके घरों की महिलाओं के साथ बलात्कार होते हैं? या फिर क्या उनके बच्चों का क़त्ल होता है? इसका जवाब होगा नहीं! क्योंकि ये तमाम मौत के सौदागर तो दंगो की आग भड़काकर ज़ेडश्रेणी की सुरक्षा और गाड़ियों के काफिले के साथ अपने स्वर्ग में पहुँच जाते हैं। लेकिन हम अपने ही वर्ग भाइयों के साथ मारकाट मचाकर अपने माहौल को नरक बना लेते हैं। गलियाँ और सड़कें बेगुनाहों के खून से लाल हो जाती हैं, और हमारे अपने लोगों की लाशें सड़कों पर धू-धू करके जलती हैं। साथियो! यदि हम अब भी नहीं चेतते और मुसोलिनी व हिटलर की जारज़ औलादों को पहचानकर इतिहास की कचरा पेटी के हवाले नहीं कर देते तो हममें और भेड़ों की रेवड़ में ज्यादा फर्क नहीं रह जायेगा।

साम्प्रदायिक फासीवाद और इसके कारणों को समझो, और इसकी जड़ों को खोद डालो!

साथियो! हम एक ऐसी समस्या से रूबरू हैं, जो सामाजिक भाईचारे, शान्ति और सौहार्द्र के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है। बेशक फासीवादऔर साम्प्रदायिकताजैसे शब्द सुनने में थोड़े भारी से लगते हैं, किन्तु इन्हें समझना ज़्यादा मुश्किल काम भी नहीं है। जनता के भाईचारे व एकजुटता के दुश्मनों की शिनाख़्त इन्हें समझकर ही की जा सकती है। फासीवाद वह विचारधारा है जिसे इटली के तानाशाह मुसोलिनी और फिर उससे भी ज़्यादा भयंकर रूप में जर्मनी के तानाशाह हिटलर के द्वारा अपनाया गया। फासीवाद के तहत नस्लीय और धार्मिक आधार पर लोगों का बँटवारा करके यातना शिविरों में अल्पसंख्यकों के खुले कत्लेआम को अंजाम दिया गया। फासीवाद हमेशा साम्प्रदायिकता, नस्लवाद, क्षेत्रवाद आदि का जामा पहनकर आता है लेकिन उसका असली मकसद होता है पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही को लागू करना। जर्मनी और इटली दोनों ही देशों में फासीवादियों ने वहाँ के बड़े-बड़े पूँजीपतियों की दिलो-जान से सेवा की और मज़दूरों के हरेक अधिकार को बेरहमी से कुचलकर उन्हें गुलामों की तरह खटाया गया। उनसे ट्रेड यूनियन बनाने, हड़ताल करने का अधिकार तक यह कहकर छीन लिया गया कि मज़दूरों के आन्दोलन से “देश” व “राष्ट्र” को नुकसान होता है! धार्मिक अल्पसंख्यकों और हर प्रकार के राजनीतिक विरोधियों को राष्ट्र-विरोधी घोषित करके या तो जेलों में ठूँस दिया गया या फिर मौत के घाट उतार दिया गया। स्त्रियों पर दमन की इन्तहाँ की गयी और उन्हें यशस्वी पुरुष पैदा करने का यन्त्रक़रार दिया गया! फासीवादी हमेशा ये सारे कुकृत्य देश की सेवा’, ‘प्राचीन संस्कृति की रक्षा’, ‘धर्म की रक्षाआदि के नाम पर करते हैं और अपने आपको सबसे बड़ा राष्ट्रवादी” घोषित करते हैं, जैसे कि हमारे देश का संघी गिरोह। लेकिन 80 फीसदी मेहनतकश लोगों से सभी हक़ छीनकर उन्हें राष्ट्र” से बेदख़ल कर दिया जाता है! उन्हें शोषण की भट्ठियों में झोंक दिया जाता है! तो ज़ाहिर है कि इन फासीवादियों के राष्ट्र” में देश के बहुसंख्यक मेहनत-मशक्कत करने वाले लोग शामिल नहीं होते। फिर मोदी, राजनाथ जैसे लोगों के राष्ट्र” में सबसे प्रतिष्ठित कौन है? टाटा, बिड़ला, जिन्दल, मित्तल, अम्बानी जैसे लुटेरे जो पूरे देश को लूट खाने पर आमादा हैं! राष्ट्र की तरक्की के नाम पर दरअसल फासीवादी ताक़तें इन्हीं लुटेरों की लूट को खुला हाथ देती हैं और जो भी उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाये वह राष्ट्र-विरोधी”, “देश-विरोधी”, “आतंकवादी” और “विकास-विरोधी” घोषित कर दिया जाता है। यानी, फासीवाद दरअसल और कुछ नहीं बल्कि लुटेरे पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही होती है। जब भी किसी देश में पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था संकटग्रस्त होती है, महँगाई, बेरोज़गारी, बेघरी और बदहाली आसमान छूने लगती है और जनता का पूँजीवादी व्यवस्था से ही भरोसा उठने लगता है, ऐन उसी समय साम्प्रदायिक फासीवाद की लहर चलायी जाती है। अचानक मन्दिर या मस्जिद बनाना सबसे बड़ा मुद्दा बन जाता है, मेहनतकश हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन बना दिये जाते हैं, एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय का खून पीने को आमादा हो जाता है। और वे सारे मुद्दे जो आम लोगों के लिए सबसे अहम होते हैं, वे किनारे कर दिये जाते हैं। फासीवादी ताक़तें ऐन उसी समय ये एलान करती हैं कि देश को बचाने के लिए एक “कठोर नेतृत्व” की ज़रूरत है; किसी को लौह-पुरुष” करार दे दिया जाता है तो किसी को “भारत माँ का शेर”! ये “कठोर नेतृत्व” किसके प्रति कठोर होता है? ये आदमखोर “शेर” किसके खून का प्यासा होता है? देश के करोड़ों-करोड़ मज़दूरों, किसानों और आम मेहनतकश लोगों के लिए! और जब बात टाटा, बिड़ला, अम्बानी जैसों की आती है तो उनके सामने ये कठोर नेतृत्व अचानक मुलायम हो जाता है; “भारत माँ का शेर” अपने दाँत और नाखून खोकर भीगी बिल्ली बन जाता है। आज भारत भी महँगाई, बेरोज़गारी, बेघरी और बदहाली के संकट का सामना कर रहा है, पूँजीवादी आर्थिक संकट पूरी दुनिया की तरह यहाँ भी गहरा रहा है। नतीजतन, दुनिया के अन्य देशों की तरह यहाँ भी एक नया साम्प्रदायिक फासीवादी उभार पैदा किया जा रहा है। देश के मौजूदा हालात पर एक संक्षिप्त नज़र डालने से ही पता चल जायेगा कि देश के अमीरज़ादों को आज फासीवाद इतना ज़रूरी क्यों लग रहा है।
टाइमपत्रिका के अनुसार देश में खरबपतियों की संख्या 46 से बढ़कर 55 हो गयी है। किन्तु दूसरी तरफ मानव विकास सूचकांक की 146 देशों की सूची में हमारा देश 129 वें स्थान पर है! पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बचाने के लिए उन्हें तो भारी मात्रा में कर माफ़ी और बेल आउट पैकेज दिए जाते हैं किन्तु देश में 46 प्रतिशत बच्चे, करीब 50 फीसदी महिलायें कुपोषण और खून की कमी का शिकार हैं। लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ने के बावजूद लोग भूख और कुपोषण से जनित बीमारियों से मर जाते हैं। प्रचुर प्राकृतिक संसाधन, मानव संसाधन और अनगिनत विकास कार्यों की आवश्यकता होने के बावजूद करीब 28 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं, जिनमें करीब 4 करोड़ पढ़े-लिखे नौजवान है। देश की 93 फीसदी मज़दूर आबादी असंगठित-अनौपचारिक मज़दूरों के रूप में बिना किसी श्रम कानून के आधुनिक गुलामों की तरह से खट रही है। ग़रीबी, बदहाली के कारण पिछले 12 सालों में देश के 2 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। देश के ऐसे हालातों में पूँजीपति वर्ग नहीं चाहता कि देश का कमेरा वर्ग जो सबकुछ पैदा करता है एकजुट होकर उनके स्वर्ग पर धावा बोल दे। इसलिए वह हर रूप में साम्प्रदायिक फासीवादियों का ज़बर्दस्त समर्थन करता है। भारत के तमाम बड़े पूँजीपति घराने 2002 में गुजरात दंगो के सरगना नरेन्द्र मोदी के “वायब्रेंट गुजरात” को खूब सराह रहे हैं, जिसकी सरकार के मंत्रियों तक पर दंगो में सक्रिय भागीदारी के कारण अभी तक मुकदमे चल रहे हैं। भारत में फासीवादियों की कारगुज़ारियों का लम्बा इतिहास रहा है। हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद का दम भरने वाले भगवा गिरोह की जड़ों को खोदा जाए तो यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आयेगा की आज़ादी से भी पहले से इनका इतिहास झूठों, मक्कारियों, गद्दारियों और अंग्रेजो को माफ़ीनामे देने का इतिहास रहा है। खुद को सांस्कृतिक धर्म ध्वजाधारी बताने वाले संघियों की समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर शरीफ आदि में हुए बम विस्फोटों में भागीदारी को आज कौन नहीं जानता? इनके ठिकानों से कितनी ही बार विस्फोटक सामान और नकली दाढ़ी-मूछें-टोपियाँ बरामद हुई हैं।  गुजरात में ग़रीबी रेखा के इतने हास्यास्पद होने पर भी 23 फीसदी लोग ग़रीबी रेखा से नीचे जी रहे हैं, 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, भारत के 50 सबसे पिछड़े जिलों में से 6 गुजरात में हैं। यहाँ मज़दूरों के हालात बद से बदतर हैं और केवल पूँजीपतियों का ही विकास हो रहा है। मोदी का वायब्रेण्ट गुजरातअपने आप में एक बहुत बड़ा झूठ है, जिसे बिकाऊ मीडिया द्वारा गढ़ा गया है। मोदी ने अपनी छवि चमकाने के लिए एप्को वर्ल्डवाइडनामक कुख्यात कम्पनी को प्रचार का ठेका देकर अगस्त 2007 से मार्च 2013 तक उसे 25,000 डालर प्रतिमाह दिये हैं। मोदी का “विकास माडल” मनमोहन के “विकास माडल” का ही नग्नतम रूप है। ये ही लोग हैं जो आज देश में साम्प्रदायिक उन्माद भड़काकर दंगों की लहर पर सवार होकर सत्ता में आने का सपना देख रहे हैं। असल में ये हत्यारे-मक्कार-ढोंगी हिटलर और मुसोलिनी जैसे फासीवादियों की ही जारज़ औलादें हैं।

साझी जनसंस्कृति और साझे संघर्ष की विरासत को याद करो! फासीवाद के फन को कुचल डालो!!

साथियो! अंग्रेजों की फूट डालो-राज करोकी नीति और आर.एस.एस. तथा मुस्लिम लीग की तमाम तिकड़मों के बावजूद हमारे देश में ऐसे जनसंघर्षों का लम्बा इतिहास रहा है जब लोग मज़हबी दीवारों को गिराकर कन्धे से कन्धा मिलाकर अपने साझे दुश्मन के ख़िलाफ संघर्षों में उतरे हों। चाहे वह समय 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का रहा हो; भगतसिंह, आज़ाद, अशफाक उल्ला खां और राम प्रसाद बिस्मिल का रहा हो या फिर तेलंगाना-तेभागा से लेकर नौसेना विद्रोह का रहा हो। हमारे देश की बहादुर जनता की ज़बर्दस्त शौर्य गाथाएँ रही हैं। जब जनता अपनी मज़हबी पहचानों से ऊपर उठकर वर्गीय एकजुटता के साथ साझे दुश्मन के ख़िलाफ़ आ डटती है तभी उसकी वास्तविक समस्याओं का समाधान होता है। फासीवाद के संसदीय वामपंथी पार्टियों द्वारा नपुंसक विरोध या किसी भी कुलीनतावादी, एनजीओ-वादी/सुधारवादी विरोध से भी कुछ हासिल नहीं होगा। देश के संगठित मजदूरों-किसानों-छात्रों-नौजवानों और आम इंसाफपसन्द नागरिकों की जुझारू फौलादी एकजुटता ही फासीवाद को शिकस्त दे सकती है, और देगी भी। फासीवाद सत्ता में आये या न आये, ये हमेशा पूँजीपतियों के ज़ंजीर से बँधे कुत्ते की तरह आम मेहनतकशों पर भौंकता और मौका पड़ने पर उन्हें काटता रहेगा। समय आ रहा है जब मेहनतकशों की जुझारू जन-एकजुटता से हमें इस ज़हरीले नाग के फन को कुचल डालना होगा। हमें शहीदे-आज़म भगत सिंह के सन्देश को याद करना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत होती है। ग़रीब मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए की तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिये। ...तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव को मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो।” दंगे और साम्प्रदायिक नरसंहार जिनके दिलों को बैचेन नहीं करते वे भी समाज के लिए कलंक ही हैं और समय उनका इतिहास काले अक्षरों में लिखेगा। हमारे शहीद आज हमसे पूछ रहे हैं-क्या इस विशाल देश में कुछ लाख नौजवान भी ऐसे नही हैं जो इस देश के लोगों की रूह में हरकत पैदा करने और देश को फासीवादी साम्प्रदायिकता से मुक्त करने के लिए संकल्पबद्ध हों?’

जाति धर्म के झगड़े छोड़ो!
सही लड़ाई से नाता जोड़ो!!
मेहनतकश की वर्ग एकता-ज़िन्दाबाद!

पक्षधर विचार मंच, युनिवर्सिटी कम्युनिटी फॅार डेमोक्रेसी एण्ड इक्वॉलिटी
सम्पर्कः- प्रशांत-9619039793, नारायण- 9769903589
ईमेल- ucde.mu@gmail.com

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